तिनका-तिनका चुनता रहा, अधूरे सपने बुनता रहा
ज़िन्दगी की खाख से, चिंगारियाँ चुनता रहा
वक्त के रुसवईयों को, अश्रु से धोता रहा
ज़ख्मों को सीता रहा, ज़ीवन यू ही जीता रहा ।।
अपनी ही परछाईयों को, अँधेरे में ढूंढ़ता रहा
ख़ूबियों के ढेर से, कमियाँ ही चुनता रहा
अपनों ने ही रुशवा किया, गैरों तक कहाँ जाना पड़ा
गुलशने-उम्मीद से खामोशियाँ चुनता रहा ।।
कागज़ की कश्ती बनायीं हमने, बारिस का कहाँ ध्यान रहा
क़िस्मत की लकीर के भरोसे रहे, हाथों की लकीर को कहाँ जाना
गाँठ सुलझाने चल पड़े, उलझन के मर्म का कहाँ ज्ञान रहा
रिश्ता निभाने निकल पड़े, रिश्ते में भी अब वो कहाँ ज़ान रहा ।।
पतझर के फूल चुने हमने, सावन का भी न इंतज़ार किया
पनघट तक आकर मन, प्यासा ही लौट गया
रेतों के महल बनाये हमने, मिट्टी का न मान किया
भौतिकता भ्रम में जीते रहे, संस्कृति का भी सम्मान गया ।।
ज़िन्दगी की हक़ीकत से हमेशा ही महरूम रहा
इंसान को ही न पहचना, भगवान तक कहाँ जाना पड़ा ।।
ज़िन्दगी की खाख से, चिंगारियाँ चुनता रहा
वक्त के रुसवईयों को, अश्रु से धोता रहा
ज़ख्मों को सीता रहा, ज़ीवन यू ही जीता रहा ।।
अपनी ही परछाईयों को, अँधेरे में ढूंढ़ता रहा
ख़ूबियों के ढेर से, कमियाँ ही चुनता रहा
अपनों ने ही रुशवा किया, गैरों तक कहाँ जाना पड़ा
गुलशने-उम्मीद से खामोशियाँ चुनता रहा ।।
कागज़ की कश्ती बनायीं हमने, बारिस का कहाँ ध्यान रहा
क़िस्मत की लकीर के भरोसे रहे, हाथों की लकीर को कहाँ जाना
गाँठ सुलझाने चल पड़े, उलझन के मर्म का कहाँ ज्ञान रहा
रिश्ता निभाने निकल पड़े, रिश्ते में भी अब वो कहाँ ज़ान रहा ।।
पतझर के फूल चुने हमने, सावन का भी न इंतज़ार किया
पनघट तक आकर मन, प्यासा ही लौट गया
रेतों के महल बनाये हमने, मिट्टी का न मान किया
भौतिकता भ्रम में जीते रहे, संस्कृति का भी सम्मान गया ।।
ज़िन्दगी की हक़ीकत से हमेशा ही महरूम रहा
इंसान को ही न पहचना, भगवान तक कहाँ जाना पड़ा ।।