Saturday, 20 October 2012

तृष्णा

तिनका-तिनका चुनता रहा, अधूरे सपने बुनता रहा
ज़िन्दगी की खाख से, चिंगारियाँ चुनता रहा
वक्त के रुसवईयों को, अश्रु से धोता रहा
ज़ख्मों को सीता रहा, ज़ीवन यू ही जीता रहा ।।

अपनी ही परछाईयों को, अँधेरे में ढूंढ़ता रहा
ख़ूबियों के ढेर से, कमियाँ ही चुनता रहा
अपनों ने ही रुशवा किया, गैरों तक कहाँ जाना पड़ा
गुलशने-उम्मीद से खामोशियाँ चुनता रहा ।।

कागज़ की कश्ती बनायीं हमने, बारिस का कहाँ ध्यान रहा
क़िस्मत की लकीर के भरोसे रहे, हाथों की लकीर को कहाँ जाना
गाँठ सुलझाने चल पड़े, उलझन के मर्म का कहाँ ज्ञान रहा
रिश्ता निभाने निकल पड़े, रिश्ते में भी अब वो कहाँ ज़ान रहा ।।

पतझर के फूल चुने हमने, सावन का भी न इंतज़ार किया
पनघट तक आकर मन, प्यासा ही लौट गया
रेतों के महल बनाये हमने, मिट्टी का न मान किया
भौतिकता भ्रम में जीते रहे, संस्कृति का भी सम्मान गया ।।

ज़िन्दगी की हक़ीकत से हमेशा ही महरूम रहा
इंसान को ही न पहचना, भगवान तक कहाँ जाना पड़ा ।।

Monday, 15 October 2012

आखिर क्यूँ ??

जीवन पथ इतना जटिल क्यों है ये रास्ता इतना कठिन क्यों है
सुनहरी सुबह की दलदल सी शाम
कहीं धुप तो कहीं छाँव क्यों है
असत्य का मान और सत्य पर इलज़ाम क्यों है
सीने पे रोज़ लगता वाण और किसी को राजयोग का वरदान क्यों है !!


दुर्जनों का सम्मान, सजन्नों का अपमान क्यों है
मधुशाला जन से सरावोर और मंदिर सुनसान क्यों है
मुख पे गुणगान पर ज़हन इतना वीरान क्यों है
ज़ख्म हर सर पे हर हाथ में पत्थर क्यों है
अपना अंजाम मालूम है सबको
फिर अंजाम से सब हैरान क्यों है !!

कोई किसी से अनजान तो किसी पे इतना मेहरबान
कोई बद-जुबान तो कोई बे-जुबान क्यों है
प्रेम के पथिक का हृदय इतना लहू-लूहान क्यों है
इतने युग बदले फिर भी, यह विद्यमान क्यों है !!


Sunday, 7 October 2012

शहर

हर तरफ खामोशियों का साज़ देखा
हर तरफ मजबुरियों का राज़ देखा ।

देखता रह गया जब मदहोशियों का ताज देखा
हर ज़हन में सिर्फ एक ही जूनून देखा ।

जब भी देखा हर तरफ दौलत का ही मान देखा
जब टटोला जेब अपना तब मिला एक सिक्का
क्या नशीब था वो भी खोटा ही निकला ।

देखता रह गया इन्सान की इंसानियत को
हैवान को भी शर्म आये एसी इंसानियत पर ।

सब कुछ बिकते देखा तेरे इस शहर में ये खुदा
पर कोई दर्द खरीदने वाला रहनुमा नहीं देखा ।

आगाज़ ये है तो अंजाम कैसा होगा
ज़िन्दगी के इस सफ़र का शाम कैसा होगा ।

सोचता हूँ कैसे मैं इस भवर से पार निकलूं
पर शायद मैं भी वैसा नहीं रहा जब आएना(mirror) देखा ।

Wednesday, 3 October 2012

कदमों के निशान


कदम बढ़ते गए वक़्त गुजरते गए,
मैंने सोचा मेरे क़दमों के निशान कभी नहीं मिट पाएंगे।
मैं दूर तलक बढ़ता गया दुनिया की भीड़ में खोता गया,
पीछे मुड कर नहीं देखा मेरे कदम कहाँ तक चले गए।
किसी ने मुझसे पूछा तुम जिस राह चले उस राह पर मैं भी चलना चाहता हूँ,
मैंने कहा मेरे क़दमों के निशान पे तुम चल के मेरे पास आ जाओ।
बड़ी उम्मीद थी किसी ने तो कहा की वो मेरे साथ चलना चाहता है,
पर जब उसने कहा मैं कैसे आऊं तुम्हारे क़दमों के निशान मिट चुके है।

शायद उस भीड़ ने निशान को मिटा दिया या मेरे कदम ज़मीन पे नहीं पड़े।

आज मैं सोचता हूँ अपने अतीत को कोसता हूँ और जब पीछे मुड के देखता हूँ,
सच वो मेरे अपने क़दमों के निशान मुझे भी नहीं दिखते।