Monday, 6 February 2017

हिज़्र

अतीत की चादर को ओढ़े
वर्तमान साझे खड़ा था
भविष्य की चिंता भी थी
मगर वो अपनी ज़िद में अड़ा था
तोड़ दूंगा स्वप्न सारे
छोड़ दूंगा बेसहारे
कह रहा हूँ मान ले अब
वो आनन् नहीं तुम्हारा ।

टूटते हैं कितने तारे
छूटते हैं कितने प्यारे
हिज़्र के उस वक़्त में
रक़ीब अपना ही नशीब था
भावनाओं के भंवर में
डगमगा रही थी कश्ती
डूबने की चाह में
आँख मूंदे ही पड़ा था ।

सूर्य अपनी ही तपिश में
किरण रक्त जैसा सजाये
लाल थी धरती और अंबर
रुधिर जैसा लाल ह्रदय था
लाल पहनी लाल ओढ़ी
लाल सजाये माँग उसने
रक्त की धारा से पूछो
वो तो अश्रु में सना था ।

वेदनाओं के अगन से
ह्रदय घायल हो रहा था
नीर के रहते हुए भी
प्यास और बढ़ ही रहा था
वक़्त घटता जा रहा था
धुंध बढ़ता जा रहा था
सांस अटकी थी परंतु
न जी रहा न मर रहा था ।

वक़्त ने करवट ली ऐसी
हुए  मदमस्त वो ज़हन से
वादे टूटे रश्मे छुटी
साथ छूटा आस टुटा
दुःख बड़ा या दर्द बड़ा था
अशमंजस बहुत बड़ा था
रास्ता कठिन था लेकिन
हौशला अभी ज़रा बचा था |

याद आऊं या न आऊं
वज़ूद पीछे ही खड़ा है
गर भूलना आसान होता
तो भुला देता वो मंज़र
विश्वास की डोर थामे
आगे तुम जो बढ़े हो
तोड़कर उस डोर को
गाँठ बंधने अब चले हो |

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