Sunday, 7 October 2012

शहर

हर तरफ खामोशियों का साज़ देखा
हर तरफ मजबुरियों का राज़ देखा ।

देखता रह गया जब मदहोशियों का ताज देखा
हर ज़हन में सिर्फ एक ही जूनून देखा ।

जब भी देखा हर तरफ दौलत का ही मान देखा
जब टटोला जेब अपना तब मिला एक सिक्का
क्या नशीब था वो भी खोटा ही निकला ।

देखता रह गया इन्सान की इंसानियत को
हैवान को भी शर्म आये एसी इंसानियत पर ।

सब कुछ बिकते देखा तेरे इस शहर में ये खुदा
पर कोई दर्द खरीदने वाला रहनुमा नहीं देखा ।

आगाज़ ये है तो अंजाम कैसा होगा
ज़िन्दगी के इस सफ़र का शाम कैसा होगा ।

सोचता हूँ कैसे मैं इस भवर से पार निकलूं
पर शायद मैं भी वैसा नहीं रहा जब आएना(mirror) देखा ।

2 comments:

  1. aprateem .....mujhe believe nai ho raha hai ki ek aam insaan ek kavi ki tarah kaise likh sakta hai.....bahut bahut accha .....:)

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