कदम बढ़ते गए वक़्त गुजरते गए,
मैंने सोचा मेरे क़दमों के निशान कभी नहीं मिट पाएंगे।
मैं दूर तलक बढ़ता गया दुनिया की भीड़ में खोता गया,
पीछे मुड कर नहीं देखा मेरे कदम कहाँ तक चले गए।
किसी ने मुझसे पूछा तुम जिस राह चले उस राह पर मैं भी चलना चाहता हूँ,
मैंने कहा मेरे क़दमों के निशान पे तुम चल के मेरे पास आ जाओ।
बड़ी उम्मीद थी किसी ने तो कहा की वो मेरे साथ चलना चाहता है,
पर जब उसने कहा मैं कैसे आऊं तुम्हारे क़दमों के निशान मिट चुके है।
शायद उस भीड़ ने निशान को मिटा दिया या मेरे कदम ज़मीन पे नहीं पड़े।
आज मैं सोचता हूँ अपने अतीत को कोसता हूँ और जब पीछे मुड के देखता हूँ,
सच वो मेरे अपने क़दमों के निशान मुझे भी नहीं दिखते।